प्रस्तावना
राहों हवाओं में मन नामक किताब को लिखने का मेरा आशय है मैंनें प्रकृति रूपी हर मन को मोहने के लिए कई शब्द व्यक्त किए हैं, अपने व हर किसी पथिक के मन को राहों व हवाओं में एक सुहानी सैर करवाने का प्रयत्न किया है।
काव्य को पढने मात्र से हर शख्स प्रक्तति रूपी दुनियाँ का अनुभव कर सके...
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समर्पण
इस किताब को मैं दुनियाँ के हर उस प्राणी समर्पित करना चाहता हूँ, जो प्रकृति के हर अंदाज को बङे ही भाव विभोर होकर अपने आगोश में लेने को तत्पर्य रहता है, जब मैं साहित्य की दुनियाँ से वाकिफ हुआ तो मन में लिखने की लहर ने उदघोश रूपी जन्म ले लिया.
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हवाओं ने पूछा
हवाओं की राहों में उसने ला करके पूछा
तू जाता किधर है क्यों मुझसे न पूछा ||
कङी धूप की एक बङी रोशनी ने
मेरी आँखों से टकराकरके पूछा ||
तू बङा ही अजीब है
तूसा दूजा न देखा ||
हवाओं की महफिल से
आसमाँ कैसे थम गया
इश्की इत् मिनान से सूरज ने चंदा से पूछा ||
बादलों की काली घटा छा गई थी
जब हुई न वर्षा तो मानव ने ईश्वर से पूछा
हवाओं की राहों में उसने ला करके पूछा... ||
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तबाह हुए हम
जिंदगी तबाह कर देती है जीने को
रात तबाह कर देती है अँधेरे को
आने के लिए
मजबूर कर देते हैं फूल
सुगन्ध को उङने के लिए
हैरान कर देता है 'सूर्य'
प्रकाश को फैलने के लिए
महज 'लालच' में है मजबूर 'मानव'
गलत कदम उठाने लिए,
तो क्यों? नहीं तबाह कर सकते हो तुम
मानव को सँभलने के लिए
तबाह.... ||
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मिट गए अहसान
मिट गए खेतों से खलिहान जैसे
वैसे मिट गए अहसान
इस दुनियाँ से मेरे ||
क्या मिट गई किस्मत उनकी
कट गयीं हाथों से हथेली जिनकी ||
किस्मत न किसी के हाथों में है ढलती
गर है जुनूँ तो किस्मत है जज्बातों से बनती ||
चाहो मौत को दुलामा देकर तुम
उसे बचा न पाओगे
किस्मतों के खेल से बिन खेले
तुम्हारी किस्मत कुछ कर नहीं सकती
मिट गए खेतों से खलिहान जैसे... ||
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दिसम्बर निकल गया
न जाने कितने दिसम्बर निकल गए,
मगर मैं घर से बाहर न निकला
न जाने कितने जज्जात पिघल गए,
मैं घर से बाहर न निकला ||
उनके मेरे इंतजार में आँखे धूमिल हो गई
मैं घर से बाहर न निकला
समय के साथ वो
दरबदर बदलते गए,
मैं घर से बाहर न निकला ||
उम्मीदों के बोझ
तले में दबता गया
मगर मैं घर से बाहर न निकला ||
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ललक ही चाह
ललक भी एक चाह होती है'
चाहने वालों की दरगाह होती है' शिवम ||
रातों में सुबह और सुबह में शाम होती है
जिदगी हर भीड में इंतढाँ लेती है ||
वहीं पर मनुष्य की पहचान होती है
प्यार को ललक रखता शायद,
तभी तो तुझमें मोहब्बत की छठा दिखती है ||
इश्क के हालात से परे
बिन कराह के वो इच्छा
का दंश सहती है ||
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इंशाँ की हकीकत
इंशान को है इंशान से मिलने का वक्त कहाँ
जो पहले था इंशाँ वो अब कहाँ ||
जरा सीं बात पर मरने
मारने को उतर आते हैं
पहले वाले इंशानों वाला
अब के इंशान के अन्दर
सद्भाव रहा कहाँ
हकीकत की जमीन पर
इंशानियत की तौहीन है यहाँ
अरे इशां अपने बुजुर्गों
की तरफ जरा मुड़कर तो देखो
उनको ये आधुनिक का मानव
अब भी सिर झुकाता है यहाँ
~~
उनसे पूछो
मुझपर क्या बीती मुझसे न पूछो,
हजारों गवाह हैं मेरे
जरा उनसे तो पूछो
भर जाती हैं आँखे खुद
के कारवाँ याद करके,
जरा देर का वो इलाज
न पूछो, _
खुद जिंदगी को जख्म देकर
मरहम हूँ ढूँढने लगा
हजारों की महफिल में
दूर अकेला हूँ दिखने लगा
अपनी तारीफें क्या करूँ,
जरा उनसे तो जाकर पूछो
मैंने उसे देखा तक न था
वो मुझे चाहने कब लगा
जरा उनसे तो जाकर पूछो
~~
"दूर रहना चाहता है"
ये मन बहलता भी नहीं है
अकेले खेलता भी नहीं है
किसी के साथ खेलूँ
तो रुकता भी नहीं है
ऐ प्रकृति तेरे आगोश में
खेलना चाहता है मन
इसकी जिद बस यही है,
दूर दराज़ हवाओं के
झोंको में लहर कर
खुद से इठलाता है
तुतलाता है,ठहरता है
शायद इसकी चाह
बस यही है,
आसमाँ से बात
और दिल के राज़
मुझसे हमेशा क्यों
छुपाए रखता है
आखिर दिल मेरा है
मुझसे क्यों दूरी
बनाए रखता है
शायद मुझसे दूर
रहना चाहता है अभी
~~
समस्याओं ने घेरा
समस्याओं ने मुझे
इस भाँति घेरा
रात सा दिन हो गया
शाम सा लगने
लगा सवेरा
न डरा और न रुका
मैं चल दिया हूँ
उससे लड़ने अकेला
थामा जो साहस का दामन
तो बढ़ गया
हौंसला फिर मेरा
कील कंकड़ पत्थरों ने
रोकना चाहा मुझे
रूक सका न मैं कहीं
मैं डरा अंधकारों से नहीं
हो गया है कारगर
जब सारी दुनियाँ से
हूँ जंग मैं लड़ा अकेला
साथ हैं अब भी मेरे
समस्याएँ जैसे
मानों उन्होंने ही
हो पाला मुझे
लगकर गले चल
रही हैं ऐसे
मानों अपना ही
घर समझा है मुझे
~~
"लगा मैं हवा हूँ"
लिखूँ मौसम की क्या ताकत
तेरे कदमों में लाने को
मुशाफ़िर बन चुका हूँ मैं
तेरी चाहत को पाने को...
बना हूँ सिरफ़िरा खुद मैं
अभी आज़ाद बनने को
लगा मैं हूँ हवा की बारिश
खुद को भिगाने को...
यहाँ की भीड़ बस्ती को
मैं हवा का झोंका लगता हूँ
यहाँ की ख्वाब खामोशी के
बदले ज़रा सा प्यार दो मुझको...
~~
खबर न मुझे
"खबर न मुझे"
राहों का मन्ज़र हो
सफ़र हो सुहाना
जिन राहों पर
उसे हो बस
चलते जाना...
यहाँ से वहाँ तक
न खबर हो हमारी
तेरा साथ छूटा जैसे
वो वफ़ा हो हमारी...
कही जिंदगी का
सिलसिला रुकने न पाए
खबर है मुझको
कहाँ जिंदगी लिए ये जाए...
~~
मुशाफिर हूँ
मैं मुशाफिर हूँ
न रूकता हूँ
न ठहरता हूँ
बस चलता हूँ
तेरे कदमों की आहट से
बस मैं तो सिसकता हूँ,
ठिकाना है
न मंजिल है
मुझे बस चलते जाना है
न रोता हूँ न हँसता हूँ
महज गीत के तारों से
दुनियाँ को आजमाता हूँ,
न नजरें मिलाता हूँ
न किसी से टकराता हूँ
बस अपनी मंजिल
को पाने को
ये गीत गुनगुनाता हूँ,
मुशाफिर हूँ मैं घायल हूँ
नहीं मरहम लगाता हूँ
कुछ शब्दों की सीढ़ी से
गहराईयों में
उतरता जाता हूँ
~~
नई राह
जिंदगी पतझङ सी हो गई
नई कोपियाँ भी आने लगीं
भोर के कलरव से दुनियाँ
नई राह पर चलने लगी,
मन मेरा ठहरकर भी
अस्थिर हवा में हो गया
मनचला ये दिल मेरा
मानों मोह से है घिर गया,
हो रहा अब आभास मुझको
तन फिरंगा चल दिया
क्यों धूल,धूसर, बादलों से
मोह मेरा बढ़ने लगा
~~
होश है बेहोश
है हवा खामोश
शायद मुझसे नाराज है
गुमशुदा से एक थपेङे ने फिर
छेङा अपना राग है
जा रहा मुझसे बिछङकर
जरा बता मुझे क्या बात है
रूठकर तेरा ऐसे जाना
सहन मुझसे होता नहीं
राहों और हवाओं ने ही
है पाला मुझे
चल रहा हूँ बनकर पथिक
अनजानी राह पर
है जाना मुझे
होश है बेहोश फिर भी
कुछ होश है रखना मुझे
जिंदगी की जंग में
जीत भी हासिल करनी है मुझे
~~
फिरंगी हवा
है हवा ये फिरंगी
न कोई लगाम है
हर झोंकों से निकलता
इसके किसी का नाम है,
टोकती हर शक्स को
रोकती हर शक्स को
इस अलबेली हवा का
बस यही एक काम है,
कभी झकझोरती है मुझे
कभी खेलती अटखेलियाँ
रहती न तन्हाँ कभी है वो
बस हवा का यही नाम है
~~
रंग-रूप ढेरों
शरद ऋतु में सर्दी
बिखेरे
ग्रीष्मकालीन गर्मी
है हवा ही नाम उसका
जो कभी बन जाती है
बेदर्दी,
कभी सन-सन करती
गुजरती
कभी तो स्वर मन को मोहे
कभी भूचाल सी बनकर
है चलती
चमचमाते महलों को है
खण्डहर करती,
हैं हवा के रंग-रूप ढेरों
चाहें तूफान, बवण्डर
और चाहें वायु कह लो
~~
सावनी वायर
तन घरों में घूमता
मन है राहों में विचल रहा
मैं ठहरा "निर्मोही"
उस हवा का पीछा कर रहा,
हो रहा बेचैन मन अब
घूमता घनघोर जंगल फिरा
मैं अधूरा सा ठिठककर
लौट बचपन में गया,
मुझे याद रहता है सदा
हवा का वो एक झकोरा
जिसने वर्षों से मुझे
खुद अपने में है रॅग रखा,
ए शिवम बेखौफ अब तू
कर सफर इस सैर का
बह रहा प्यारा सा झोंका
सावनी बयार का
~~
बताने दे मुझे
अब जरा मरकर
देख लेने दे मुझे,
कैसा लगता है
अहसास कर
लेने दे मुझे,
मैं भी तो जानूँ
इंशानियत क्या है
मरने की इजाजत
जरा सी दे दे मुझे,
अब जरा मरकर
देख लेने दे मुझे,
बनकर हवा आसमान में
उङ लेने दे मुझे
नए जीवन में पिछले
जन्म की कुछ तो यादें
पास रखने दे मुझे,
अब जरा मरकर
देख लेने दे मुझे,
उस स्वर्ग की खबरें
कुछ तो नर्क में
बताने दे मुझे,
अब जरा मरकर
देख लेने दे मुझे
~~
सोचता ही रहा
मैं सोचता ही रहा चंद पल भर के लिए
फुरसत मैं हुआ नहीं
अपनों से मिलने के लिए,
आसमाँ पर पहुँचे
जमीं पर भी रहे
कुछ ख्वाब थे मिले
कुछ खो भी गए
मैं सोचता ही रहा
चंद पल भर के लिए,
हवाओं ने ढूँढा
आवाजों ने बुलाया
मैं खो ही गया
कुछ पल के लिए...
मैं सोचता ही रहा
चंद पल भर के लिए
~~
छाई बेदर्दी
मन खिन्न है
मन भिन्न है
बने चेहरे पर
हजारों चिह्न हैं,
कुछ खाश
कुछ उदास
कुछ निराश
ऐसे ही मानव
के दुनियाँ में
लाखों रूप हैं,
कहीं निराशा
छट रही है
तो कहीं पर
बिछ रही है,
कहीं खुशियों की
चहलकदमी है
तो कहीं छाई
गमों की गर्मी है,
करें शिवम अब
क्या जब दुनियाँ
में छाई ही बेदर्दी है
~~
मुशाफिर हूँ
मैं मुशाफिर हूँ
न रूकता हूँ
न ठहरता हूँ
बस चलता हूँ
तेरे कदमों की आहट से
बस मैं तो सिसकता हूँ,
ठिकाना है
न मंजिल है
मुझे बस चलते जाना है
न रोता हूँ न हँसता हूँ
महज गीत के तारों से
दुनियाँ को आजमाता हूँ,
न नजरें मिलाता हूँ
न किसी से टकराता हूँ
बस अपनी मंजिल
को पाने को
ये गीत गुनगुनाता हूँ,
मुशाफिर हूँ मैं घायल हूँ
नहीं मरहम लगाता हूँ
कुछ शब्दों की सीढ़ी से
गहराईयों में
उतरता जाता हूँ
~~
11- हजारों जबाव
वो हवाओं से भीगे
दिन भी मेरे आज हैं
वक्त के नीचे दबे
खुलते सभी ही राज हैं,
क्या भरोसा कर सकूँ
जिंदगी और मौत का
कभी न दोनों साथ हैं
टिकती भी न वो पास हैं,
कोशिश हजारों नाकाम हों
मौत का उत्तर भी मौत है
क्या करूँ उससे मैं प्रश्न
देती हजारों जबाव है
~~
चलूँ हवाओं में
हवाओं ने मुझे
वो सफर है कराया
जो सोचा न था कभी
वो याद है कराया
चलती हवाओं ने
समुद्र की लहरों
में है घुमाया
कंकङीले, पत्थरों, बंजरों
में मुझे है चलाया
फिर भी हवाओं ने मुझको
न दर्द है
महसूस कराया
रेत के रेतीले पहाड़
पर चढ़कर
गिरा हूँ फिसलकर नीचे
आवाज सी बनकर
हुए थे जख्म जो हल्के
वो हवा ने पल भर
में भर डाले
अनजाना मैं
उस दर्द से रूबरू था
अपनों से दूर था
वक्तों की महफिल में
वो वक्त न मेरा था
मैं समझूँ दुनियाँ को
दुनियाँ न समझे मुझको
चलता हूँ तूफानों में
महसूस न होती हवा है
घूमूँ मैं ऐसे हवा में
जैसे कैथे को
खाता हाथी है
सबको महसूस हो ऐसे
जैसे ठण्डक
देती हवा है
हवाओं का चलना
मौसम ही है
वक्त को ठहराना
बस में नहीं
तूफानों में साहिल
को जलाना
हर एक हाथों में
था दम ही नहीं
~~
राहों में मन
मैं ऐसी जगहों पर रहता
जहाँ रहता न कोई है
मैं ऐसा आवारा झोंका
बनकर हूँ बहता
जहाँ बहता न कोई है
गाँव की गलियों से होकर
शहर में चंद दिन ठहर जाता हूँ
मिलकरके अपने देश से
विदेश चला जाता हूँ
लिपटकर हवा के झोंकों में
आसमान में पहुँच जाता हूँ
मिलकर आसमाँ से अंतरिक्ष को निकल
जाता हूँ
पानी में उतरकर नहरों में कूद जाता हूँ
भरता है मन जब लम्बी छलाँगे
तो समुद्र में पहुँच जाता हूँ
रास्तों को मेरा मन है चाहता
भरी भीङ वाले रास्ते में
मन को छोङ देता हूँ
फिर चलते रास्तों में मन
को नहीं ढूँढ पाता हूँ
~~
राही अकेला
चलता हूँ बस अकेला
मिलता न साथ तेरा
जो साथ थी हवाएँ
वो भी अब विपरीत हैं
खींचती हैं पीछे
मानों हम डोर हैं
हम खुद न जान पाते हैं
कहाँ खो जाते हैं
सोच के समुन्दर में
होते जो तूफान हैं
वो बनते आँधियों से हैं
चलते तेज तूफानों से
निकलती जो आवाज है
लगता है मेरे दिल की
बस यही पुकार है
~~
हवाओं के महल
मासूम था चेहरा जो मेरा
मिला फूलों से
दिया मुझको
फूलों ने काँटो में रहकर
जीना सिखा दिया मुझको
हवाओं के महल
में दिखे जब दरवाजे
घुसकर बैठ गया
उसमें कहानी बनाने
उस कहानी को
सामने लिख लाया
हूँ सामने तुम्हारे
पढ़कर मन खिल
उठा तुम्हारा
सैर करूँ मैं
जैसे धूप में हो छाया
~~
किसान दुर्दशा
1 -हाँफकर भी श्वास लेता है
सब उगा कर भी
भूखा सोता है,
मन उमङता है
चिल्लाता है
फिर खुद ही समझाता है
क्योंकि सुनाने के लिए कोई पास नहीं होता है,
जिंदगी की दौङ में
दौङकर भी सबसे पीछे रहता है
हाँ हाँफकर भी श्वास लेता है।
2- पानी पीने की जगह
तपती धूप में खून को पसीना बनाकर बहाता है
जरा सी प्रकृति की मार में
वो अपने हाथों में कुछ नहीं बचा पाता है,
क्यों होती किसानों की दुर्दशा है,
जब सारा संसार उन्हीं
पर टिका है,
हाँफकर भी श्वास लेता है।।
छू लो आसमान
उङते आसमाँ में पंछी
धरती वालों से कहते हैं
जरा सोच अब
मन में कर लो,
मन के अरमान भी
ऊँचे कर लो
उङना सीखो
मेरे जैसे ख्वाबों के पंख
लगाकर तुम,
जरा ख्वाब भी होंगे तेरे
तो सपने सच
कर लोगे तुम,
उङते रहो सदा
आसमान में,
नभ, तारे भी छू लो तुम,
ख्वाबों के आगे
हारी है गरीबी
अरमानों को सच
कर लो तुम ।।
~~
मैं नदी हूँ
सिसकती हूँ, मचलती हूँ,
कई मौकों पर गरजती हूँ,
उलझती हूँ फिर भी हर रोज मंजिल
की तरफ बढ़ती हूँ,
मैं नदी हूँ...
कभी किनारों पर,
कभी गहरे दरियों पर,
हर रोज नए लोगों से मिलती
और बिछङती हूँ,
मैं नदी हूँ...
पता नहीं मेरा प्रेमी
मुझसे छूटा है या रूठा है,
उसी की तलाश में मेरा
हर पल बीता है,
रात-दिन की बिन परवाह किए
मैं अकेली ही बहती हूँ,
मैं नदी हूँ...
कहीं कल-कल की आवाज तो
कहीं छल-छल की आवाज
मैं सुनती हूँ,
फिर प्रेमिका की तरह
खुद से ही लरजती हूँ,
मैं नदी हूँ...
~~
***