Thursday, July 4, 2019

कविता मची खलबली

"मची खलबली"

घिरे बादलों की
भूख बस यही है
ज़मीं भीग जाए
कमी बस यही है
घिरे घनघोर बादल
उमड़ ही रहे हैं
जिन्हें देखकर दिल
में मची खलबली है

आशाओं की किरणें
हिलोरें भर रहीं हैं
मन की मनोदशा
शिथिल हो रही है
मेरी साँस रूकती
बिखरती जा रही है
लगा जैसे मेरी साँसे
बारिश की बूँदों से
जुड़ती जा रहीं हैं

युवा कवि/लेखक
शिवम अन्तापुरिया
उत्तर प्रदेश
भारत
गूलरे पक गयी भुन भुन आ गए
मानो चाहत के सारे ख्वाब मिल गए
शिवम अन्तापुरिया

बिना मर्ज़ी सबके घरों में घुस जाऊँगा
     जो देखना भी न चाहते थे
     उनके ही खरीदे अखबार में  
                     जब छापा जाऊँगा

शिवम अन्तापुरिया

ऎ उमड़ता हुआ बरश जा बादल,
या फ़िर जा चला चला जा बादल,
शिवम अन्तापुरिया

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