"सोचनीय पीड़ा"
हवा खुद ही उड़ रही हो
मोड़ खुद ही मोड़ खाती हो
पानी खुद में डूबने लगा हो
नदी खुद ही बही जाती हो
आग खुद ही जली जाती हो
गर्मी खुद ही तपती जाती हो
सर्दी को सर्दी महसूस होती हो
ये सोचनीय है
काश
इंशान को खुद में
इंशान दिखता हो
स्त्री को खुद में
स्त्री दिखती हो
शैतान को खुद में
शैतान दिखता हो
असत्य को खुद में
असत्य दिखता हो
धर्म करने वाले के हृदय में
मानव के प्रति प्रेम बहता हो
दुनियाँ की तरफ उँगली
उठाने वाला व्यक्ति
गर कभी खुद में
झाँककर देखता हो
तो फिर किसी को किसी की
गलतियां बताने की जरूरत न हो
~ शिवम अन्तापुरिया
उत्तर प्रदेश
No comments:
Post a Comment