Thursday, January 3, 2019

"* रचना *"

         " कफन बन गया हूँ"

जिंदगी थी मेरी असरदान होना
   होती है चाहत नजरों का मिलना
मोहब्बत में जैसे तपन का है उठना
     गर्मी में वैसे बरफ का पिघलना
जीवन में जैसे साँसों का रूकना
       सर्दी में मानुष के तन का सिकुङना
जिंदगी थी.....

ढलता शरीर है जिंदगी को जीकर
    जैसे हो बहते नदियों का रूकना 
बनता-बिगङता मैं उठ गया हूँ 
      तुम्हारे लिए बस मैं जी रहा हूँ   
मोहब्बत बनीं है सदा से पहेली
       मानो हो जैसे जंगल-जलेबी 
दलदल में होगा फसलों को उगना
  यही जिंदगी में मेरा है सपना 
जिंदगी थी...
सही था गलत मैं सबकुछ हो गया हूँ 
   नजरों में तेरी तलब हो गया हूँ 

कुछ वजह थी "अन्तापुरिया" के दिलों का     
              बिछङना
गलत था तुम्हारा मेरी नजरों से डरना  
डरना डराना सभी को है आता
हँसना-हँसाना सभी को न है आता
   हँसने हँसाने से डरने लगा हूँ 
तेरी जिंदगी का कफन बन गया हूँ
जिंदगी थी...

~ शिवम यादव अन्तापुरिया

No comments:

Post a Comment