Friday, April 19, 2019

लाचार

*लाचार हैं*

खूब हैं लपटे जलाती
हम साधारण लोगों को
रिश्वत की अंधेरी रात में,

कब बीत जाती हैं
सारी उम्रे समझ ही
   नहीं पाते ...
बस खुद्दारी की तलाश में,

दिल तो तब रो उठता है
जब घर में बेटी पूछती है
      पापा से ...
कब तक जिएँगें जिंदा
लाश बनकर इस दुनियाँ में
न आने वाले अच्छे दिन
     की तलाश में ...

शिवम अन्तापुरिया

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